वतन के हालात पर रोया खूब मैं, सड़को पर जब बच्चे बेघर देखे
थके हुए मुसाफिर और सफ़र देखे
सन्नाटों में सब जुगनू दर बदर देखे
बिगड़ गये शहर ये चाहतों में सब
सोहबतों के दूर तलक असर देखे
बहुत याद आये मां बाप भाई बहन
हमने पलटकर जब कभी घर देखे
जिन्हें देखा नहीं सज्दों में कभी
झुके हुए यहां वहां उनके सर देखे
वक़्त भी हिस्सों में बटा हुआ देखा
शाम ओ सहर कभी दोपहर देखे
वतन के हालात पर रोया खूब मैं
सड़को पर जब बच्चे बेघर देखे
बेख़्यालियों का तब ख़्याल आया
उसकी फिरी हुई जब से नज़र देखे
excellent publish, very informative. I wonder why the opposite experts of this sector do not understand this. You should continue your writing. I am sure, you have a huge readers’ base already!