कल एक झलक ज़िंदगी को देखा
*कल एक झलक ज़िंदगी को देखा,*
*वो राहों पे मेरी गुनगुना रही थी,*
*फिर ढूँढा उसे इधर उधर*
*वो आँख मिचौली कर* *मुस्कुरा रही थी,*
*एक अरसे के बाद आया मुझे क़रार,*
*वो सहला के मुझे सुला रही थी*
*हम दोनों क्यूँ ख़फ़ा हैं एक दूसरे से*
*मैं उसे और वो मुझे समझा रही थी,*
*मैंने पूछ लिया- क्यों इतना दर्द दिया*
*कमबख़्त तूने,*
*वो हँसी और बोली- मैं ज़िंदगी हूँ…….*
_*तुझे जीना सिखा रही थी…